परिवार की खुशियों के बीच दबती इच्छाएँ

परिवार की खुशियों के बीच दबती इच्छाएँ

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सुबह के आठ बज रहे थे, और अग्रवाल परिवार के पेंट हाउस की रसोई में जैसे एक जंग छिड़ी थी। गैस पर चाय का पतीला उबल रहा था, दूसरी ओन पर दूध फूटने वाला था, और तवे पर पराठे सुनहरे हो रहे थे। बीच में खड़ी थी प्रिया — घर की सबसे बड़ी बहू।

पीछे से तेज़ आवाज़ आई, "भाभी! कितनी बार कहा है, फोन लेकर किचन में मत आना। बहू के हाथ में मोबाइल हमेशा होना ठीक नहीं लगता।"

प्रिया मुस्कुराई, "ठीक है मम्मीजी, ध्यान रखूँगी।"

तभी सासू माँ, शैलजा जी, अंदर आईं और पूछीं, "सुबह-सुबह ये हल्ला क्या है?"

गृहिणी की भूमिका निभाती रिया बोली, "कुछ नहीं मम्मीजी, बस भाभी को समझा रही थी कि फोन कम इस्तेमाल करें। आजकल लड़कियाँ फोन से चिपकी रहती हैं।"

शैलजा जी ने प्रिया की ओर देखा, "रिया गलत तो नहीं कह रही। तुम दिनभर ऑफिस में रहती हो, वहाँ फोन नहीं चलाता? घर में थोड़ी मर्यादा रखो।"

प्रिया ने सिर झुकाया, मन ही मन सोचा, "काम भी करती हूँ, तभी तो घर में खर्च चल पाता है।"

प्रिया की शादी को डेढ़ साल हुए थे। वह एक प्रतिष्ठित कॉलेज में लेक्चरर थी। सुबह जल्दी उठकर घरेलू काम निपटाती और फिर से शाम को घर के कामों में लग जाती।

रिया एमएड की छात्रा थी और खुद को घर की बड़ी बहन समझती, भाभी को टोकती रहती।

एक शाम जब सभी भोजन पर बैठे थे, शैलजा जी ने सब्जी परोसते हुए कहा, "देखो करण, आजकल की बहुएँ फोन पर ज्यादा रहती हैं। प्रिया तो ठीक है, लेकिन रिया को संभालना पड़ेगा। अगर माँ बनने के बाद भी यही आदत रही तो बच्चे का क्या होगा?"

करण ने हल्का सा हंसते हुए कहा, "माँ, चिंता मत करो। उसका फोन तो बच्चों की तस्वीरों और नोट्स से भरा है।"

रिया ने खटखटाते हुए कहा, "भैया, आप हमेशा भाभी का पक्ष क्यों लेते हो? दादी कहती थीं कि बहू को अनजान लोगों से बात नहीं करनी चाहिए, फिर ये स्कूल वाले सबके साथ बातें करती रहती है!"

करण ने गंभीर होकर कहा, "रिया, जमाना बदल चुका है। वह टीचर है, काम का तरीका ऐसा ही है। अगर बहुएँ काम करती हैं तो उन्हें बोलने की आज़ादी भी देनी होगी।"

दिन बीतते गए। रिया की 'समझाइशें' लगातार जारी रहीं—

"भाभी, दुपट्टा पहन लिया करो।"

"भाभी, हंसते हुए धीरे बोलो, बाहर आवाज़ जाती है।"

"भाभी, अजनबियों से आंख मिलाकर बात मत किया करो।"

प्रिया रोज़ मन ही मन कहती, "चुप रहना ही बेहतर है, झगड़ा करूँगी तो अक्खड़ कहेगी।"

कुछ महीनों बाद रिया की शादी अग्रवाल घर के ही निखिल से हुई। शादी भव्य थी और रिया बड़े परिवार में विदा हुई।

सास संतोष जी ने मुस्कुराकर कहा, "बहू बहुत सभ्य है, बस एक बात—यहाँ बहुएं कम फोन चलाती हैं, परिवार को ध्यान देती हैं।"

रिया के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, दिल में सोच रही थी, "भाभी तो दिन भर फोन में रहती थी..."

ससुराल जीवन शुरू हुआ। सुबह पांच बजे सास की आवाज़—

"रिया, उठ गई? दूध लेकर आओ, पूजा करनी है।"

छह बजे तक घर का सारा काम रिया की जिम्मेदारी बन गया। फोन छूने का मौका केवल माँ के मिस्ड कॉल देखने का मिलता।

एक दिन देर से बैठी रिया ने प्रिया का मैसेज पढ़ा— "कैसी हो रिया?"—और जवाब लिखी, "भाभी, समय नहीं मिलता..."

तभी सास की आवाज़ आई, "रिया! दूध गिरा रहा है, और फोन देख रही है? सुबह-सुबह मोबाइल हाथ में अच्छा नहीं लगता।"

रियाने अपने पुराने शब्द सुने— "भाभी, फोन मत चलाओ..."

धीरे-धीरे रिए एहसास हुआ कि जिन नियमों से उसने दूसरों को बांधा था, वही अब उस पर लागू हो रहे हैं।

कुछ सप्ताह बाद, जब सब सो गए, रिया ने प्रिया को फोन किया। प्रिया ने हंसकर कहा, "अरे, आज छोटी बहन को भाभी की याद आई!"

रिया बोली, "भाभी... अब समझ आई है, रोल नहीं बदलते, जिम्मेदारियाँ बदलती हैं..."

प्रिया चुप रही, फिर बोली, "दुख होता है सुनकर, पर अच्छा है कि तू समझ गई। अगली बार जब तेरी बहू आए, तो पुरानी बातें न दोहराना।"

रिया ने मुस्कुराकर कहा, "भाभी, मैं वादा करती हूँ, अपनी बहू को बेटी की तरह रखूँगी।"

दो साल बीते। प्रिया माँ बनी—छोटा आरव घर का उजाला। शैलजा जी भी अब नरम पड़ गई थीं।

गर्मी की छुट्टियों में रिया पहली बार मायके आई।

शैलजा जी ने गले लगाते हुए पूछा, "कैसी है मेरी बेटी?"

रिया हंसकर बोली, "अब समझ आई मम्मी, जब खुद बहू बनती है, तो नियम ज्यादा नजर आते हैं।"

रसोई में प्रिया बिना दुपट्टे के पराठे बेल रही थी।

रिया ने हँसकर कहा, "भाभी, आज दुपट्टा नहीं लाया?"

प्रिया मुस्कुराई, "जिस दिन तू कहती थी, तब लेती थी। अब तेरी क्लास खत्म हो गई।"

शैलजा जी ने बाहर से कहा, "अब क्या कहें, बच्चा है, दौड़ती-भागती रहती है। और जमाना भी बदल गया है।"

रिया ने मुस्कुराकर माँ की तरफ देखा, "जमाना भी नया था, पर नज़रें पुरानी थीं।"

करण पास आया, "तब भी यही कहता था, सुनने वाला कोई नहीं था।"

प्रिया ने प्यार से कहा, "अब ध्यान रखना—जब तेरी भी कोई छोटी आए, तो उसकी जगह खड़े होकर बात करना।"

रिया की आंखें भर आईं, "भाभी, मैंने बहुत गलतियां कीं..."

प्रिया हंसते हुए बोली, "कोई बात नहीं, तू थी इसलिए मैंने सब सहा और सीखा। अब ये सब तेरे लिए सीख बन गया है।"

शैलजा जी दरवाज़े से मुस्कुराईं—उन मुस्कान में सुकून और सीख दोनों थे।

"शायद अब घर में बहू-ननद नहीं, दो बहनें रहती हैं," वे मन ही मन कहा करतीं।

यह नया संस्करण मूल कहानी के भाव, नैतिकता और व्यक्तिगत संघर्ष को बनाए रखते हुए नए पात्रों, संवादों और दृश्यावली के साथ उभरता है। कहानी परिवार में दबाई इच्छाओं, सम्मान की कमी, तनाव और अंततः समझ के सकारात्मक बदलाव की उन्नति दर्शाती है।


लेखिका : ममता यादव